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मात पिता की सेवा में,
जिसने भी मन लगाया।
सकल मनोरथ पूर्ण हुये।
फिर उसने हरि पद पाया।।
सदैव अपने ईश से,
यही याचना करता हूँ ।
शीघ्र स्वस्थ्य हों बाबूजी,
यही कामना करता हूँ ।।
आज मिले एक मित्र ने,
दिखलाया पुराना चित्र।
कागज के फूल पे जैसे,
छिड़काया हो इत्र।।
यह तो जीवन है प्यारे,
इसमें विष भी अमृत भी।
क्यों इतना चिंतन है प्यारे,
इसमें गरीब भी समृद्ध भी।।
निज परिश्रम से यकीनन,
तू बड़ा बन जायगा ।
निज समर को जीत कर ही,
तू अमर बन पायगा ।।
शब्द भले चुरा ले कोई,
नहीं ज्ञान हरण हो पाय।
व्यर्थ चिंतन इनका कविवर,
नहीं मान वरण हो पाय ।।
रचा था आज तक तुमने,
जितने गीत सब सुंदर।
परंतु आज की कविता,
लगी मुझे जरा हटकर।
प्रफुल्लित मन हुआ पढकर,
गया जब ध्यान मेरा उस पर।
सुनाया बूंद का किस्सा,
“अद्भुत” है मेरा ‘रविकर’।।
बनकर तुम स्मार्ट मित्र,
लगा रहे हो वाट मित्र ।
अजब है तेरी शान मित्र,
गजब तुम्हारा ठाट मित्र।।
रखती व्रत तुम हर साल प्रिय,
बुनती प्रेम का तुम जाल प्रिय।
मैं फंसता उसमें हर हाल प्रिय,
यूं करती तुम कमाल प्रिय।।
तुम पर है अभिमान प्रिय,
तुम करती हो सम्मान प्रिय ।
मैं नित नई कविता लिखता हूँ,
तुम करती हो गुणगान प्रिय ।।
सागर मन की बोलिए,
हृदय राखी अनुराग।
मन की गांठे खोलिए,
खुल जाए तब भाग।।