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हम किसी भी कार्य को आरंभ करने से पहले उससे सम्बंधित सूचनाएँ/जानकारियां आदि इक्कट्ठी करते हैं, हम देखते हैं क्या नियमसंगत है क्या नहीं, साथ ही साथ हम उन सभी बिन्दुओं पर भी गौर करते हैं जिनसे हमारे द्वारा सम्पादित/निष्पादित होने वाला कार्य सीधे रूप से प्रभावित होता है अथवा हो सकता है. अब ऐसी सामान्य सी दिखने वाली स्थिति में जब हम पाते हैं कि पूर्व में भी ऐसा किया गया है अथवा दूसरों के द्वारा कुछ असामान्य तरीकों का प्रयोग भी किया गया है तो हमें उससे होने वाले हानि लाभ पर ध्यान नहीं जाता और हम भी उसी ढर्रे पर चल पड़ते हैं. हमें देखना होगा क्या सही है क्या गलत है जो कुछ हो रहा है हमारे बीच या फिर हमें तैयार रहना होगा इस भेंडतंत्र का हिस्सा बनने के लिए जो किसी भी सामान्य सी स्थिति को विषम परिस्थिति में तब्दील करने की क्षमता रखती है.
वर्तमान समय में जो राजनैतिक परिदृश्य भारतवर्ष में दिखाई दे रहा है, ऐसा प्रतीत होता है जैसे बस जैसे तैसे ही दिल्ली की बस पकड़ लेनी है सबको और डी.टी.ओ. और आर.टी.ओ. बस को बस देख ही रही हो और कुछ न करने की स्थिति का हवाला दे रही हो. जहाँ एक ओर कांग्रेस जैसी वयोवृद्ध राजनैतिक दल अपने अन्य सहयोगियों के साथ जोड़ तोड़ में लगी है वही दूसरी ओर भाजपा जैसी पार्टी अपनी छवि/वर्तमान स्थिति को कायम रखने के लिए मनमानी पर उतर गयी हो मानो. यूं लगने लगा है कि अन्य राष्ट्रों की तरह भारतवर्ष में भी अब द्विदलीय व्यवस्था कायम होकर रहेगी.
वर्तमान परिदृश्य पर जरा सा गौर करें तो आप भी अपने को या तो मोदी विरोधी अथवा मोदी भक्त ही पाएंगे, परन्तु ऐसा नहीं होना चाहिए कि आपको अपने को उसमे ही उलझाए रखना है बल्कि आपको सभी पृष्ठभूमि से सही आकलन कर स्वयं को अद्यतित करना होगा ताकि आपका कीमती वोट NOTA को न जाए, क्योंकि यह हल नहीं है. बड़े गौरव से आप NOTA दबा देंगे, फिर क्या होगा? उसकी परिकल्पना आपको दहला देगी, आप कुछ साल और पीछे रह जायेंगे, पुनःप्राप्त करने के लिए वह सब जो आज आपके पास है भी.
हममें से कई प्रायः सभी चीजों में अनमैच्ड, अलग, यूनिक करने, किये जाने पर जोर देते हैं, चाहे हम बैंक अथवा राशन के लाइनों में खड़े होकर अपने को प्रदर्शित कर रहे हों या यूं ही चाय पर चर्चा हो रही हो कहीं भी, हमारी कोशिश सदा ही ये होती है कि हम कुछ अलग विचार रखें, शायद ही हममें से कोई किसी एक के विचार पर सहमत हो पाता हो. पर ये मामले आपस के निजी होते है अधिकतर, पर जैसे ही देश की बात आती है तो हम सच्चे देशभक्त होने/दिखने लग जाते हैं. बगैर ये सोचे कि जो कुछ भी हुआ है, हो रहा है अथवा होने को है सही क्या है.
कई बार ढेर सारी बातें एक साथ दिमाग में कौंध जाती हैं और दिमाग तय नहीं कर पाता कि इस मौके पर क्या बोलना/कहना उचित अथवा अनुचित हो सकता है, और हम विवशता में कुछ अप्रत्याशित बोल जाते हैं और उसका परिणाम विपरीत हो भी जाता है, और कई बार हम मौन ही रह जाते हैं, और लोग हमारी पराजय मान लेते हैं उसे.
दरअसल यह एक सामान्य व्यवहार है कि आपके कृत्यों के सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही पहलू सदैव होते हैं. कोई घटना किसी के लिए अवसर हो भी सकती है और किसी के लिये अति दुखदायी. इस बात का एक बेवाक उदाहरण किसी दुर्घटना में पीड़ित परिवार से मिलने जाना और उन्हें सांत्वना एवं आश्वासन देना. जहाँ सकारात्मक पहलू यह है कि आपने ऐसे परिवार से जाकर भेंट की उनका ढाढस बांधने का प्रयास किया तो वहीं दूसरी ओर इसका नकारात्मक पहलू होगा कि आपने अवसर का फायदा अपनी साख बनाये रखने के लिए किया यदि आप एक जन प्रतिनिधि हैं तो यह बात सरासर आपके राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में सम्मिलित कर ली जयगी, आप इससे अछूते नहीं रह सकते. परन्तु तब तक सब कुछ असामान्य नहीं होता जब तक उक्त बातों को महिमामंडित न कर दिया जाय.
किसी भी घटना को जब महिमामंडित करने का प्रयास किया जाता है तब वह दिखावे का रूप लेने लगती है, और दिखावे से आज के इस दौर में सभी भली भांति परिचित है. यदि आप काम करते हैं और उसके सारे रिकार्ड्स रखते जाते हैं, तो जो लाभान्वित लोग हैं वे हमेशा आपके बारे में औरों के सामने बातें करेंगे. ऐसे में एक बात से सभी सहमत होंगे कि
“काम करो , नाम कर लो दिलों में अपना, अखबार में नाम छपाने की जरूरत क्या है?”
अब आप काम करेंगे तो कैसे उसे जन जन तक पहुंचाएंगे आपके द्वारा की गई गतिविधियों के विपरीत यदि कोई अन्य पहलू प्रभावित हो रहा होगा तो उस और ध्यान नहीं भी जा सकता है, ऐसे में विरोधी पक्ष आपके उन्ही गतिविधियों को करतूत के रूप में पेश करना शुरू करेंगे. ये तो हो गयीं सामान्य बातें जिनसे हमारा सामना हमेशा ही होता रहता है और हम सब कभी न कभी अपने जीवन में दो-चार होते ही हैं.
क्या हुआ इन बीते वर्षों में जब से देश आजाद हुआ है? यह प्रश्न ऐसा है जैसे कोई पुत्र अपने पिता से पूछता है कि आपने हमारे लिए किया ही क्या है? जबकि पिता ने जो त्याग किया होता है वह वही जानता है अथवा उसका ईश्वर, यहाँ सभी पिता को एक सामान समझ लेना भूल होगी. परन्तु यह कि पिता ने कुछ नहीं किया यह कहना भी सही नहीं होगा. इसे अन्य सन्दर्भ में समझने का प्रयास करते हैं. एक ओर जब देश आजादी मिलने के अंतिम चरणों में था, सबने अपनी “भूमिका” निभाई, जिनसे जो बन पड़ा, क्रांतिकारियों की भूमिका को किसी भी सूरत में नकारा नहीं जाना चाहिए उन्होंने वही किया जो उस समय के अनुकूल था. वहीं दूसरी ओर नरमपंथियों ने वार्तालाप से हल का प्रयास किया साथ ही साथ अपना हित भी साधा जो जिस स्थान पर रहे वहां से आगे की सोच कर एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ भी लगी. वह दृश्य कुछ ऐसा था कि जैसे कोई शिकारी अपना शिकार कर गया और बचा खुचा सियारों के लिए छोड़ गया हो. पर जो होना था वह हो चुका था. जैसे-तैसे एक राष्ट्र ने अपने लड़खड़ाते कदमो से चलने की शुरुआत कर दी थी. ऐसे में उस हालात को और उसमे फंसे कर्णधारों को दोष देना अपने पूर्वजों को दोष देने जैसा होगा. हमारे पूर्वजों ने जो भी निर्णय लिया चाहे वह जैसा भी रहा, आज, हमारे हाथों में है, आज, हमारा है, हम दोष बड़ी आसानी से मढ देते हैं किसी भी बात का किसी पर, पर कभी ये नहीं सोचते हमारे बीच से निकल कर ही कोई वहां तक गया हुआ होता है जो हमारे समाज के भाग्य को बदलने का दम रखता है.
हम भ्रष्टाचार के लिए एक पुराने व्यक्तित्व के विचारों का सहारा लेते हैं, खूब नारे बाजी करते हैं, धरने और प्रदर्शन भी करते हैं और जब सत्ता आती है, तो स्वयं को असहाय और ठगा सा पाते हैं और हम भी वही करने लग जाते हैं जो औरों ने किया होता है. पूरे देश में लगा मानो हाहाकार मच गया सत्ता और विपक्ष दोनों को लगने लगा कि यह एक तीसरी शक्ति के रूप में प्रकट हो रही है, पर नतीजा क्या हुआ यह दल आपसी कलह का शिकार हो गयी और उसके एक मजबूत धड़े ने स्वयम को उससे अलग कर लिया. जी हाँ मैं “आप” की बात ही कर रहा हूँ जिसने अपना “विश्वाश” खो दिया.
नेतृत्व के पास एक सिद्धांत होना ही चाहिए, और जिसके लिए प्रतिबद्धता न सिर्फ प्रदर्शित हो बल्कि अपने मूल स्वरुप में विद्यमान भी हो. यदि किसी दल का एक धड़ा किसी बात पर सहमत व असहमत दिखे तो उसके नेतृत्व को चाहिए कि वह आम सहमति पर बल दे, बात बात में अपनी संहिता में बदलाव लाकर किसी के दवाब में न आए. कड़े रूख के अख्तियार किये जाने की पूरी आवश्यकता है, पर कड़े रुख को अपनाने के लिए जनमत कौन देगा? जी हाँ आपका कीमती वोट. अपने वोट के महत्व को समझें और उसका प्रयोग देश हित के लिए जरूर करें.
अपनी संहिता के अनुपालन पर जोर देना ही दल का प्राथमिक एजेंडा होना चाहिए कि आईये देखिये हमारे दल के कार्यशैली का यह प्रारूप है, यदि आप अपने को उसके अनुरूप पाते हैं तो आपका स्वागत है. अजेंडे से खुश करने वाले, आकर्षित करने वाले योजनाओं व प्रलोभनों आदि को हटा दें, जो वर्तमान मुद्दे हैं, जो अत्यंत जरूरी मुद्दे हैं उनपर केन्द्रित हो, और उसपर कार्य करे, न कि भरमाने का काम किया जाये.
आप दूसरों को भारत माता की जय, वन्दे मातरम आदि न बोलने पर असहज हो जाते हैं, क्या जो मांस भक्षण करते हैं, वे ही निर्दयी होते हैं समाज के प्रति? क्या आप देशभक्ति की अभिव्यक्ति को इन शब्दों से तौलते हैं? मेरी नजर में वे सभी देशभक्त हैं जो अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहते हुए औरों को भी प्रेरित करते हैं उनके कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए. वे सभी देशभक्त हैं जो अपनी जिम्मेवारी से एवं पूरी ईमानदारी से लगे रहते हैं वैसे काम को करने में जो उन्हें सौंपा गया हो. मेरी नजर में तो अधिकांश ऐसे गद्दारों से सामना करीब करीब हो ही जाता है, जो अक्सर ही लाचारों के मदद के नाम पर उगाही करते दिख जाते हैं, और तो और लाचार भी ऐसे कि जो लाचार हैं ही नहीं वे भी अपने को लाचार दिखा कर अन्य वास्तविक लाचारों के हक़ को मारने का काम कर रहे होते हैं.
इस आलेख को पूरा पढने के बाद आप इसे कोरी वकवास कहने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हैं, पर एक बार अपने अंतर्मन की सुने जो कभी झूठी बात नहीं करता और मझे पूरा विश्वास है कि इस बार आप मतदान जरूर करेंगे. रोज घर से काम पर जाते समय एक बार आईने के सामने जरूर थोडा रुकें और अपने प्रतिबिम्ब में आत्मविश्वास को ढूँढने का प्रयास करें, कहीं वह अब भी तो सोया नहीं? यदि ऐसा है तो एक बार चेहरे को और धोएं फिर बाहर निकलें, क्योंकि आपके आत्मविश्वास से भरे चेहरे को देखकर ही सामने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता और फिर आपका काम तो होकर ही रहेगा. एक बार यह प्रयोग अवश्य करें, अपने को आतंकित व डरा हुआ, दबा कुचला हुआ समझना छोड़ दें, आप से अधिक शक्तिशाली कोई नहीं, कभी बोलने के लिए माइक थामे तो ऐसे बोलें कि सामने वाले सिर्फ आपको ही सुनें. मगर बोलें वही जो आपके मन में हो, किसी के दवाब में आकर बयानबाजी से स्वयं को बचाएं. इसी में आपका भला और सबका हित निहित है.
धन्यवाद.